दर्शनीय स्थल

WELCOME      स्वागतम 


सिरमौर रियासत की राजधानी वर्तमान में जिला मुख्यालय नाहन में यहां के चंद्रवंशी राजा-महाराजाओं की आन-बान-शान की गाथा सुनाती ये भव्य इमारतें जिनको वजूद में आए 100 साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन इन इमारतों की शान ज्यों की त्यों बरकरार है। ये सभी इमारतें आज भी शाही दौर के उस सुनहरे अतीत की याद दिलाती हैं। कुछ इमारतों का स्वामित्व शाही परिवार के पास है तो कुछ इमारतें सरकारी हैं। इन इमारतों को स्थानीय कारीगरों ने अपने हुनर से तराशा था। कुछ इमारतों में विक्टोरिया जमाने के स्थापत्य कला का मिश्रण देखने को मिलता है। इन इमारतों को रियासतकाल में एक्सियन रहे डा. पीयर सैल ने डिजाइन किया था। इतिहास के पन्नों के अनुसार इन इमारतों में से ज्यादातर महाराजा शमशेर प्रकाश के जमाने में बनी हैं। जो अपने काल में एक दूरदर्शी व लोकप्रिय शासक थे। केंद्र सरकार की एजैंसी इंटैग की रिपोर्ट में 100 साल से ज्यादा पुरानी ये इमारतें हैरिटेज की फैहरिस्त में शुमार हैं।

रॉयल पैलेस
सिरमौरी हुकमरानों की राजधानी रहे शहर में रॉयल पैलेस शानदार इमारत है। 1621 में जब शहर बसना शुरू हुआ तो महाराजा कर्म प्रकाश ने पैलेस का निर्माण शुरू किया। महाराजा फतेह प्रकाश ने पैलेस के विस्तार में अहम भूमिका निभाई। पैलेस से जैसलमेर से आए चंद्रवंशी राजाओं की 42 पीढिय़ों ने शासन किया। इसमें सिरमौरी ताल राजबन का दौर भी शामिल है। सिरमौर पैलेस में महाराजा कर्म प्रकाश से लेकर अंतिम शासक महाराजा राजेंद्र प्रकाश ने निवास किया। वर्तमान में सिरमौरी हुकमरानों की शान-बान रहे इस पैलेस के रखरखाव में कानूनी लड़ाई बाधा बनी। पैलेस का बहुत सा हिस्सा खस्ताहाल हो चुका है लेकिन हाल ही में पैलेस के रखरखाव को लेकर अदालत के फैसले से दोनों पक्षों को राहत मिली है।

पहले दवाखाना था फिर विक्टोरिया डायमंड जुबली अस्पताल बना

रियासत काल में महाराजा शमशेर प्रकाश ने 1887 में इस भव्य इमारत का निर्माण इंगलैड में महारानी विक्टोरिया के शासन की डायमंड जुबली के मौके पर करवाया। वास्तुकला की दृष्टि से यह इमारत बेजोड़ है। विक्टोरिया डायमंड जुबली भव्य इमारत वर्तमान में स्वास्थ्य विभाग के अधीन है। रखरखाव के चलते यह इमारत खस्ताहाल हो चली है। रियासत में इससे पहले एक साधारण सा दवाखाना चलता था जिसमें रोगियों का यूनानी व आयुर्वैदिक पद्धति से इलाज होता था लेकिन महाराजा ने महारानी विक्टोरिया के शासन की डायमंड जुबली के मौके पर यह अस्पताल बनवाया जिसमें महिलाओं व पुरुषों को अलग-अलग भर्ती करने व इलाज करने की सुविधा मौजूद थी। वर्तमान में इस इमारत में सरकारी नर्सिंग होस्टल चलाया जा रहा है। इमारत को बचाने के लिए स्वास्थ्य विभाग व लोक निर्माण विभाग के बीच जंग जारी है। अगर सरकार चाहती तो इसका संरक्षण सालों पहले हो सकता था।
आज का डीसी ऑफिस अंग्रेज मेहमानों का था रैस्ट हाऊस
वर्तमान में जिलाधीश कार्यालय की इमारत को रियासत के जमाने में स्टोन हैंज के नाम से जाना जाता था। महाराजा शमशेर प्रकाश ने इसका निर्माण करवाया। रियासत में यह सिरमौरी शासकों के खास महमानों के लिए रैस्ट हाऊस के तौर पर प्रयोग किया जाता था। जानकारी के अनुसार इस इमारत में महाराजा अपने अंग्रेज महमानों को ठहराया करते थे। बाद में रियासत काल में ही इस इमारत को कलैक्टर ऑफिस के रूप में तबदील कर दिया गया। आजादी के बाद इस इमारत का प्रयोग जिलाधीश कार्यालय के रूप में हो रहा है। इस दो मंजिला इमारत में 2 बड़े हाल व कई कमरे हैं इमारत का निर्माण पत्थर से किया गया है। वास्तु की दृष्टि से यह भी नायाब है।
तंबूखाना
ऐतिहासिक चौगान के किनारे 100 साल से ज्यादा पुरानी तंबूखाना की इमारत भी वास्तु की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। रियासत के जमाने में इमारत का प्रयोग टैंट व अन्य साजो सामान रखने के लिए होता था। वर्तमान में यह इमारत शाही परिवार की संपत्ति है दोनों जगह इमारत का निर्माण सुंदर गढ़ाई वाले पत्थरों से किया गया है। जानकारी के अनुसार इस इमारत में बड़े हाल बने हैं और सुंदर मेहराबों से बना बरामदा यहां इमारत के आगे से निकलने वालों को आकर्षित करता है। तंबूखाना का निर्माण महाराजा शमशेर प्रकाश के जमाने में हुआ। वर्तमान में इमारत के ज्यादातर कमरे बंद हैं और कुछ हिस्से का प्रयोग हो रहा है।

रंजौर पैलेस

रंजौर पैलेस का निर्माण राजकुमार सुरजन सिंह ने करवाया था जोकि महाराजा फतेह प्रकाश के मंझले बेटे थे। इस भव्य इमारत में दर्जनों कमरे हैं और एक बड़ा हाल भी है जिसको निजी संग्रहालय के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। इस इमारत में शाही परिवार के सदस्य रहते हैं। इमारत का प्रवेश द्वार वास्तु की दृष्टि से बेहद खूबसूरत है। खासतौर से भित्ती चित्रों को आज भी संजोए रखा गया है। यह इमारत भी शाही दौर के इतिहास की याद दिलाती है। इसका रखरखाव भी शाही परिवार से जुड़े सदस्य कर रहे हैं।

रणविजय भवन
रणविजय भवन भी शहर की पुरानी बेहद खूबसूरत इमारतों में एक है। यह इमारत इतनी ऊंचाई पर बनी है कि शहर के ज्यादातर हिस्सों से इसे आसानी से देखा जा सकता है। यह इमारत वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। दोमंजिला इस इमारत के ऊपर बने 2 गुंबद इसकी शान में चार चांद लगाते हैं। इसकी देखरेख भी शाही परिवार से जुड़े लोग करते हैं। इस इमारत का निर्माण महाराजा फतेह प्रकाश के चचेरे भाई वीर विक्रम सिंह ने करवाया था।

लाल कोठी 


महाराजा शमशेर प्रकाश ने लाल कोठी का निर्माण शहर के सबसे ऊंचे भाग पर करवाया। अब यह जगह पूरी तरह से आबाद है। इमारत के आसपास कितने ही सरकारी कार्यालय हैं। वास्तु की दृष्टि से इमारत अपने आप में बहुत कुछ कहती है। महाराजा ने नाहन फाऊंडरी की स्थापना की तो इस इमारत को फाऊंडरी के चीफ इंजीनियर के लिए बनवाया था लेकिन वर्तमान में इस इमारत का प्रयोग जिला प्रशासन कर रहा है। रखरखाव न होने से इमारत बदहाल हो रही है। हाल ही में मुख्यमंत्री ने इस इमारत का दौरा किया था। सरकार इसका प्रयोग सरकारी गैस्ट हाऊस के रूप में करना चाहती है।
ऐतिहासिक फाऊंडरी का प्रवेशद्वार
नाहन फाऊंडरी की स्थापना महाराजा शमशेर प्रकाश ने 1875 में की थी जैसे-जैसे स्थिति बदली फाऊंडरी का विस्तार किया गया। यहां की बनी गन्ने का रस निकालने की मशीनें जोकि सुल्तान ब्रांड के नाम से जानी जाती थी, खाड़ी देशों तक इनकी आपूर्ति होती थी। देशभर में नाहन फाऊंडरी का डंका बजता था। यहां बनी अनारकली ब्रांड की कास्ट आयरन की ग्रिल व अन्य साजो सामान पूरे देश में मशहूर था। ऐतिहासिक प्रवेश द्वार अपनी एक अलग पहचान रखता है। जिसका संरक्षण होना चाहिए। यह कारखाना महाराजा शमशेर प्रकाश की दूरदर्शिता का नतीजा भी रहा जिन्होंने रियासतकाल में उस वक्त शहर के औद्योगिकरण का सपना देखा और यह विशाल कारखाना स्थापित किया लेकिन सरकार की गलत नीतियों के चलते यह ऐतिहासिक कारखाना खत्म हुआ। आज इसके अवशेष बचे हैं।

लिटन मैमोरियल

शहर के प्रवेशद्वार पर महाराजा सुरेंद्र प्रकाश ने अपने शासन में उस वक्त के वायसराय लार्ड लिटन के सरकारी विजिट पर उनकी शान में लिटन मैमोरियल दिल्ली गेट का निर्माण करवाया। यह इमारत हजारों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। चौगान के किनारे 100 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी शान से खड़ी यह इमारत शाही जमाने की याद दिलाती है। शुरूआत में दिल्ली दरवाजे के ऊपर लगी घड़ी नहीं थी। दिल्ली गेट के ऊपर लगी घड़ी महाराजा अमर प्रकाश के जमाने में स्थापित की गई। दिल्ली गेट की ऐतिहासिक इमारत का रखरखाव नगर परिषद के जिम्मे है। नप केवल रंग-रोगन करके ही अपनी जिम्मेदारी निभा रही है जबकि इस इमारत के वजूद को बचाने के लिए सरकार और प्रशासन की तरफ से कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।

सूरत पैलेस

चौगान के एक छोर पर रिसायत काल में बनी इमारत सूरत पैलेस भी वास्तु की दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। यह इमारत शाही परिवार के सदस्यों का आवास है। इमारत का निर्माण महाराजा शमशेर प्रकाश के छोटे राजकुमार सूरत ङ्क्षसह ने करवाया था। जिसका नाम बाद में सूरत पैलेस पड़ा। यह इमारत भी हैरिटेज की रिपोर्ट में शुमार है।

कलैक्टर रैजीडैंस

अस्पताल राऊंड में सबसे ऊंची इमारत रिसायत काल में कलैक्टर रैजीडैंस के रूप में वजूद में आई। इसका निर्माण भी महाराजा शमशेर प्रकाश के जमाने में हुआ। रिसायतकाल में इस इमारत में कलैक्टर रहा करते थे। वर्तमान में यह इमारत जिलाधीश सिरमौर का सरकारी निवास है। बेहतर रखरखाव के चलते इमारत यहां आने वाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इमारत के बाहर एक बड़ा लॉन है। किचन गार्डनिंग भी होती है।





गुरुद्वारा पौंटा साहेब   



रेणुका झीलहिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले मेंनाहन से 40 किमी की दूरी पर स्थित है। यह हिमाचल प्रदेश के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है। समुन्द्र तल से 672 मीटर की ऊँचाई पर स्थित 3214 मीटर की परिधि के साथ रेणुका झील हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी झील के रूप में जानी जाती है।  झील का नाम देवी रेणुका के नाम पर रखा गया था। यह अच्छी तरह से सड़क मार्ग से जुडी हूई है। झील पर नौका विहार उपलब्ध है। एक शेर सफारी और एक चिड़ियाघर रेणुका के पास हैं। प्रबोधिनी एकादशी की पूर्व संध्या पर पांच दिन भर राज्य स्तरीय श्री रेणुका जी मेला श्री रेणुका जी झील हिमाचल में, अपने दिव्य मां श्री रेणुका जी के घर पर पुत्र भगवान परशुराम के आगमन के साथ शुरू होता है। पांच दिवसीय मेले के दौरान यहां देश भर से कई लाख भक्त भगवान परशुराम व उनकी मां रेणुका जी के दिव्य मिलन के पवित्र अवसर को देखने के लिए यहाँ आते हैं।

रेणुका जी




vkLFkk vkSj fo'okl dk izrhd eka js.kqdk esyk

jktsUnz frokjh
       nsoHkwfe fgekpy esa nsoh nsorkvksa dh mifLFkfr dks eglwl fd;k tk ldrk gS bldk mnkgj.k vki dks fdlh Hkh 'kfDrihB ;k izfrf"Br nso LFky ij fey tk;sxk A n'kZukfFkZ;ksa ds n'kuZ djus dh vkLFkk ls gh nsoh nsorkvksa dk izHkko ekuk tkrk gS A fljekSj esa fLFkr blh vkLFkk dk izrhd ,d LFkku  js.kqdk th dk gS tgka izfro"kZ jkT;Lrjh; esys dk vk;kstu fd;k tkrk gS A bl volj ij esys ds fnu bl rhFkZLFkku ij vikj tu Lkewg pkjksa vksj ls eka js.kqdk ds n'kZu djus vkrk gs A esys esa vkus okys J)kyq bl ifo=k ioZ dks eka js.kqdk vkSj Hkxoku fo".kq ds va'kkorkj  ij'kqjke  ds ¼ eka &csVs  ½ feyu ds :i esa ns[krs gSa A mRrjh Hkkjr esa ekuokdkj ,dek=k izkd`frd >hy gS bldh xgjkbZ djhc 45 QqV gS rFkk yEckbZ bldh izfjdzek djhc  <kbZ fdyksehVj dh gS A ;gka js.kqdk >hy ds lkFk gh ij’kqjke rky Hkh gS blh ds lkFk ,d fpfM+;k ?kj vkSj i;ZVu ds vU; lk/ku ekStwn gSa A
       bl ifo=k LFkku ds bfrgkl vkSj mlls tqM+h dqN dFkkvksa dks vxj /;ku esa j[ksa rks bl LFkku dk egRo vf/kd le> esa vk;sxk A dgrs gS js.kq jktk tks fd xzUFk ¼LdUn iqjk.k½ ds vuqlkj 'kfDreku nSR; Fkk tks js.kq uke ls fo[;kr gqvk og  cy'kkyh gksus ds lkFk&lkFk fo|kizseh ,oa fo}ku Hkh Fkk A ,d ckj f'kdkj [ksyrs gq, og jkekæh ioZr ij igqp x;k tgka _f"k xkSre dk vkJe ,oa riL;k LFky Fkk A jktk us _f"k vkJe ns[kdj  vkius v'o dks jksdk ,oa mlls uhps mrj dj vkJe esa x;k A ogka ij mlus _f"k ls larku gsrq izkFkZuk dh fd eSa iq=k jRu ls oafpr gwa A _f"k us mldh J)k dks ns[krs gq, funsZ'k fn;k fd rqe ^ekdkufcdk* ioZr esa tkdj viuh iRuh lfgr nqxkZ nsoh dh riL;k djks A jktk us ml je.khd LFky ¼cky xaxk½ ij nsoh dh Lrqfr dh vkSj nsoh ds ojnku ls jkuh pUædkUrk us pS=k ekl iwokZ u{k=k vk/kh jkr dks ,d dU;k dks tUe fn;k A iafM+rksa us x.kuk] T;ksfr"k ,oa xzgks ds vk/kkj ij ml dU;k dk uke js.kqdk j[kkA dU;k ds cM+h gksus ij cgqr iz;klksa ds ckn lqUnj oj dh ryk'k dh xbZ ftldh izsj.kk jktk dks LoIu esa nqxkZ eka us nh Fkh] og oj jkeljsx ioZr ij fuokl dj jgs tenfXu Fks ftuds lkFk js.kqdk dk fookg lEeku lfgr dj fn;k x;k A nksuksa us fookg ds dqN fnu js.kq jkT; esa dkVus ds ckn fQj okil jkeljax ioZr ij vk x;s A ;gka ij nksuksa us Hkxoku fo".kq dh riL;k dh ftlls Hkxoku us izlUu gksdj vius va'k Lo:i iq=k nsus dh ckr Lohdkj dj yh A QyLo:i oSlk[k ekl 'kqDyi{k frfFk rht] ijolks uoe esa ,d igj jkf=k ds le; fo".kq Hkxoku~ ds va'kkorkj Hkxoku~ ij'kqjke dk tUe gqvk A cpiu ls gh 'kL=k ds 'kkSdhu Fks vkSj iSnkblh le; ls gh buds gkaFk esa ij'kq dk fpUg Fkk A bUgksus dSyk'k  ioZr ij tkdj Hkxoku 'kadj dh mikluk rFkk vklqrks"k dh d`ik ls bUgs veks?k vL=k ^^ij'kq** uke ls feyk ftlls budk ij'kq fo'ofo[;kr gks x;k A cpiu esa budk uke jke Fkk] ysfdu bl mikf/k ds ckn ,oa ij'kq /kkj.k  ds  i'pkr budk iwjk ij'kqjke vFkkZr Qjlk dks /kkj.k djus okyk iM+k vkSj blh uke ls izfl) gq, A
        _f"k tenfXu ds Luku ds fy;s fxjh xaxk  ls  js.kqdk jkstkuk  dPps ?kM+s esa ty ys tk;k djrh Fkh ] dPpk ?kM+k muds lrhRo dk izrhd Fkk ftlls ikuh uk dHkh fxjrk Fkk vkSj uk gh ?kM+k ?kqyrk Fkk A ,d le; ty ys tkrs le; jkLrs esa js.kqdk us xU/koksZ ds ,d lqUnj tksM+s dks dkeØhM+k esa vklDr ns[kk vkSj mUgs ns[kus esa bruh rYyhu gks xbZ fd vkJe igqpus esa foyEc gks x;k] blds i'pkr mlds dPps ?kM+s ls ikuh fjlus yxk vkSj vkJe igqprs&igqprs    /kM+k vkSj ikuh lekIr gks x;k A _f"k ty dh izrh{kk dj jgs Fks] js.kqdk }kjk ty ugh ns ikus ij _f"k vius vUrZKku ls lcdqN tku x;s og ekrk js.kqdk ds bl dk;Z dks /keZ'kkL=k rFkk lrhRo ds fo:) ekudj  Øks/k dh vfXu ls tyus yxs A  mUgksus mlh Øks/k vkos'k esa vius iq=kksa dks vkns'k fn;k fd os viuh ekrk dk flj dkV nsa A ysfdu rhu iq=kksa us ekr`gR;k ds Hk; ls firk tenfXu dh vkKk ekuus ls bUdkj dj fn;k A blds i'pkr _f"k us vius lcls NksVs iq=k ij'kqjke ls dgk fd esjh vkKk uk ekuus okys rhuksa Hkkb;ksa lfgr viuh eka dk lj dkV nks  A ij'kqjke ,d rks fir` HkDr Hkh Fks vkSj vius firk dh HkLe 'kfDr ls vPNh rjg ifjfpr Fks ,slk uk djus ij og lHkh dks HkLe Hkh dj ldrs Fks vr% lHkh ckrksa dks /;ku esa j[krs gq, lksap fopkj dj mUgksus vius rhuksa Hkkb;ksa lesr viuh eka dk lj dkV fn;k A blls izlUu gksdj muds firk _f"k tenfXu us ij'kqjke ls dksbZ Hkh nks ojnku ekaxus dks dgk A ij'kqjke us igys ojnku esa viuh ekrk lesr rhuksa Hkkb;ksa dk iqu% thou ekaxk ,oa nwljs ojnku esa vius firk ls HkLe 'kfDr dks R;kx nsuk ekaxk A firk ds ^^ rFkkLrq** dgrs gh ekrk js.kqdk lfgr rhuksa Hkkb;ksa dks iqu% thou fey x;k A
       eka js.kqdk vkSj ij'kqjke ds feyu dks ,d dFkk ls tksM+k tkrk gS ftldk 'kkL=kksa esa izek.k feyrk gSA ,d le; lgòckgq vk[ksV ds fy, vk;k Fkk tks vk;kZorZ dk lezkV Fkk vkSj d`roh;Z dk iq=k Fkk A ftldh ,d gtkj Hkqtk,a Fkh og f'kdkj [ksyrs&[ksyrs js.kqdk LFky esa ij igqp x;k A tgka ij mlus ikuh Hkjrs gq, vuqie lqUnjh  dks ns[kk ftldk ifjp; ;g [kqyk fd og lqUnjh mldh dh /keZiRuh dh NksVh cgu js.kqdk  gS vkSj fjLrs esa mldh lkyh yxrh gS A blds ckn lgòktqZu dbZ ckj fxjh unh ds rV ij vk;k vkSj js.kqdk ls _f"k vkJe esa tkus dk vkxzg djus yxk A D;ksafd  blls iwoZ Hkh og vius vfHkekuh LoHkko ds dkj.k dbZ _f"k;ksa dks viekfur dj pqdk Fkk A eka js.kqdk ,d jktk ds Lokxr ls lafdr Fkh blh dkj.k og Vkyrh jgh A ijUrq jktk dh ftn ds vkxs mlus _f"k ds vkxs bl leL;k dks j[kk vkSj _f"k vuqefr ikdj js.kqdk us jktk lgòktqZu dks vkJe esa i/kkjus dk fue=k.k ns fn;k ijUrq eu gh eu jktk vkSj mldh lsuk dh Lokxr] [kkuiku dks ysdj vHkh Hkh 'kafdr Fkh fd Hkxoku muds ifr dk eku cjdjkj j[ksa A m/kj _f"k us bUæ nso dks izlUu dj jktk ds Lokxr gsrq dke/ksuq xk; vkSj dqcsj dh izkfIr dj yh A jktk ny&cy ds lkFk vkJe esa i/kkjk vkSj bruh tYnh bruk vPNk [kkuiku] Lokxr] oSHko ikdj nax jg x;k A bl jktk us vius xqIrpjksa }kjk bldk jkt irk djus dks dgk ftlls mls ekyqe gks x;k fd ;g lkjk deky dke/ksuq vkSj dqcsj dk jpk gqvk gS A rRi'pkr jktk us _f"k ds le{k dke/ksuq vkSj dqcsj izkIr dh bPNk izdV dh fd vki Bgjs lU;klh vkidks bu phtksa dh D;k vko';drk A ijUrq _f"k ds bUdkj djus dh lwjr esa fd ;g bUæ dh vekur gS eSa bUgs nsus esa vleFkZ gwa A jktk us Øksf/kr gksdj nksuksa vewY; phtsa tcju ys tkuh pkgh A bl ij _f"k us dke/ksuq ,oa dqcsj dks viuh j{kk [kqn djus dks dgk D;ksafd ij'kqjke dks fn, ojnku ds eqrkfcd og viuh HkLe 'kfDr dk R;kx dj pqds Fks vkSj nksuska dh j{kk djus esa vleFkZ Fks A dke/ksuq vkSj dqcsj _f"k izkFkZuk ij vn`'; gksdj okil bUæ ds ikl ykSV x;s A bl Øksf/kr lgòktqZu us _f"k dh gR;k dj nh vkSj ekrk js.kqdk dks tcju ogka ls ys tkus yxk A ekrk js.kqdk us vius lrhRo dh j{kk gsrq lehi ds dq.M esa Nykax yxkdj yqIr gks x;h A lgòktqZu fujk'k gksdj viuh jkt/kkuh okil ykSV x;k  A blds i'pkr ekrk ds dq.M esa yksi ds dkj.k dq.M dk ty vifo=k ekuk x;k vkSj bl ckr dks ysdj leLr nsorkvksa us ekrk dh Lrqfr dh fd gs ekrk js.kqdk ^^vki bl dq.M ls ckgj vk,a ugh rks bl dq.M dk ty lnSo ds [kwuh ty dgyk,xk vkSj yksx bls vifo=k ekudj bldk ifjR;kx dj nsxsa A ekrk js.kqdk fourh ds i'pkr izxV gqbZ vkSj bldk egRo c<+ x;k lkFk gh ifo=k rhFkZ LFky esa cny x;k A ekrk js.kqdk us mlds i'pkr ij'kqjke dks ;kn fd;k vkSj muds vkus ij jks&jksdj lgòktqZu ds Øwj O;ogkj dk o.kZu fd;k A ekrk us ;g Hkh crk;k fd ejus ds le; _f"k dqN ugh cksys dsoy ;Kksiohr dks ck,a gkFk esa mBk;s nk,a gkaFk ls vius lhus ij 21 ckj eqDds ekjs A ij'kqjke bldk vFkZ le> x, vkSj og bl ckr dk iz.k dj cSBs fd og 21 ckj {kf=k;ksa ls i`Foh  dks [kkyh dj nsxsa A blds ckn ij'kqjke us loZizFke lsu/kkj esa tkdj Hk;daj ;q) fd;k ftlesa lgòktqZu ,oa mldh lEiw.kZ lsuk dk lagkj dj fn;k A bl lagkj esa bruk jDr cgk fd lsu/kkj dh iwjh feV~Vh vkSj unh dk ty [kwu ls yky gks x;k ftlds QyLo:i unh dk uke tyky ¼ty$yky½ iM+ x;k A blh unh esa vius Qjls dks /kksdj ij'kqjke vkiuh eka ds lsok esa mifLFkr gq, A ve`rty fNM+dj iqu% vius firk dks thfor fd;k A ekrk js.kqdk vkSj _f"k tenfXu dk iquZtUe ekudj nsorkvksa us nksuksa dk iquZfookg djk;k A viuk dk;Z iw.kZ djds ij'kqjke tc tkus yxs rks ekrk dk mnkl psgjk ns[kdj ij'kqjke us bl ckr dk dkj.k iwNk rks ekrk us dgk fd rqEgkjs tkus ij esjk eu mnkl gks tkrk gS rqe rHkh vkrs gks tc rqEgs cqyk;k tkrk gS A eka I;kj dks ns[krs gq, ij'kqjke us gj ckjgosa fnu blh egsUæ ioZr ij vkus dk opu fn;k A fo}kuksa ds erkuqlkj ml le; dk ,d fnu vkt ds ,d ekl ds cjkcj Fkk vr% mlh izFkk ds vuq:i 12 fnuksa ds vk/kkj ij  vkt 12 ekl esa ;kfu fd ,d o"kZ esa nsoksBu n'keh ds fnu fu;fer :i ls og viuh eka ls feyus vkrs gSa A eka &iq=k ds ikou feyu  ds volj yksx  izcks/kuh ,dkn'kh dks  js.kqdk >hy esa Luku djds iq.; dekrs gS A 

eka & csVs ds feyu ds :i esa euk;k tkr gS eka  js.kqdk esyk 

jktsUnz frokjh 

       eka js.kqdk esyk ftyk fljekSj esa euk;k tkus okyk  jkT;Lrjh; esyk gS ftlds mn?kkVu vkSj lekiu ij izns'k ds eq[;ea=kh vkSj jkT;iky Lo;a vk dj nsorkvksa dh vxokuh o fonkbZ djrs gS A js.kqdk rhFkZ LFky  ftyk fljekSj ds eq[;ky;  ukgu ls ek=k 40 fdyksehVj rFkk p.Mhx<+ ls djhc 125 fdyksehVj gS A ukgu ls nnkgw gksrs gq;s js.kqdk th iagqpus ds fy;s fxjhxaxk ikj djuk iM+rk gS  bl unh dh mRifÙk dks  ;gka ds yksx ,d nUrdFkk ls tksM+rs gSa ftlds vuqlkj dksbZ Çf"k gfj}kj dh rhFkZ ;k=kk  djds de.My esa xaxk dk ifo=k ty ys dj dSyk'k ioZr dh vksj tk jgs Fks A f'keyk ftys esa dksV[kkbZ uked LFkku ds lehi mudk iSj fQly x;k vkSj xaxk ty ls Hkjs ik=k ls dqN ty fxj x;k A muds eqg ls fudyk ^^;s fxjh xaxk** A muds ;g 'kCn czãokD; gq, A mlh le; ogka ls ,d ty/kkjk fudyh tks vkt fxjh xaxk ds uke ls izfl} gS A;g unh fljekSj dks nks Hkkxksa esa ckaVrh gS tks ^^fxjhokj** vkSj ^^fxjhikj** ds uke ls izfl) gSa] js.kqdk th ls 4 fd-eh nwj tVksu uked LFkku esa unh ds ikuh dks lqjax }kjk ^^fxjh ckrk** ty&fo|qr~ ;kstuk cukbZ x;h gS A ;g unh fljekSj esa cgus okyh ufn;ksa esa lcls mi;ksxh fxjhxaxk dks ikou unh le>dj gtkjksa J)kyq blesa Luku djrs gSa A
         blh ds lkFk ckyxaxk unh gS vkSj fxjh rFkk ckyxaxk ds laxe ij ,d dq.M gS ftldk ikuh fcydqy uhyk gS ;gka Luku djus ls ,dne rktxh vk tkrh gS A  fxjh unh vkxs tk dj tyky unh ls feyrh gS bl LFkku dks iz;kxjkt dgrs gSa A   ;g LFkku f=kos.kh ds uke ls pfpZr gS bl f=kos.kh dks yksx cM+h J)k ds Hkko ds ekurs vkSj Luku djrs gS A blesa Luku djus okyksa dk er gS fd tks iq.; iz;kx jkt ds Luku djus esa izkIr gksrk gS ogh iq.; bl LFkku esa izkIr gksrk gS oSls js.kqdk Luku ls igys bl LFkku ds Luku dks cgqr gh 'kqHk ekuk tkrk gS A            
       fxjh unh dks ikj djus ds ckn ,d  iu&pDdh gS mlds ikl ,d dkosjh o`{k dh tM+ esa ,d f'kofyax gS A bl f'kofyax ij ikuh dh cwansa gj le; Vidrh jgrh gSa A bl f'kofyax dks iapeq[kk lkses'oj nsork dgk tkrk gS A blh ds lkeus NksVh igkM+h gs tks iqapHkkb;k ds uke ls tkuh tkrh gS ;gka ds nsork dks ^^fljekSj nsork** ds uke ls tkuk vkSj iwtk tkrk gS A iapeq[kk lkses'oj ls FkksMh nwj yxHkx 100 ehVj dh nwjh ij fQj ,d f'kofyax gS bl fyax dk uke ^^dfiys'oj** gS A ;g fyax bl ckr ds fy, fo[;kr gS fd J)k iwoZd xk; ds nw/k ls fyax dks Luku djokus ds ckn iq=k ghu dks ,d lky ds vof/k ds vUnj iq=k jRu dh izkIrh gksrh gS A blds lkFk gh  fyax dks vU; rjg ls Luku djkus ij vyx&vyx Qy ykHk gksrs gS tSls xaxk ty ls Luku djkus ij leLr iki /kqy tkrs gSa ,oa feJh ds 'kjcr ls Luku djkus ij /ku ykHk dh izkIrh gksrh gS A
       ij'kqjke rFkk js.kqdk nsoh ds iqjkus efUnj rkykc ds fdukjs js.kqdk >hy ds iSjks ds lehi fLFkr gSa A ;gka js.kqdk >hy dk ikuh ij'kqjke rkykc ds vkdj feyrk gS] ftls /kquqrjFkZ dgrs gSa A crk;k tkrk gS fd bl LFkku dk cM+k /kkfeZd egRo gS A vktdy yksx bls js.kqdk eka ds pj.kksa dk LFkku ds uke ls iqdkjrs gSa A ;gka ij fo'ks"k dj ogh fL=k;ka vkrh gS tks fu%larku gksrh  gSa vr% T;knkrj ;gka ij ^fL=k;ksa* dh gh HkhM+ gksrh gS A iqjkus eafnj ds ikl gh ,d efUnj js.kqdk eB gS ftldk th.kksZ)kj fd;k x;k gS A blesa js.kqdk dh ewfrZ j[kh gqbZ gS A yksxksa dk ;g er gS fd ;g efUnj xksj[kksa us cuok;k Fkk A
       blds ckn js.kqdk >hy dh vksj taxyksa :ih pqujh ls <ds nks ioZrksa ds chp >hy dh ifjØek efUnj dh vksj ls izkjEHk gksrk gS A ftlds pkjksa vksj iddk jkLrk cuk gqvk gS] vksj tc isM+ksa ds vUnj ls lw;Z dh fdj.ksa ty ij iM+rh gSa vkSj ty dk jax fHkUu&fHkUu Lo:i cnyrk rks mldh lqUnjrk ij pkj pkan yx tkrs gSa A ;gha ij Luku djus ds fy, ,d [kqyk ?kkV iq#"kksa ds fy, vkSj nwljk rhu vksj nhokjksa ls cUn fL=k;ksa ds cuk gS] tks efgyk?kkV vksj iq#"k?kkV ds uke ls tkus tkrs gSa A  bl >hy esa rjg&rjg dh lqUnj eNfy;ka gS ftUgs J)kyq yksx I;kj ls vkaVs dh xksfy;ka vkSj vU; [kk| lkexzh f[kykrs gSa A blh ifjØek ds nkSjku jkLrs esa foJke gsrq dbZ iM+ko Hkh vkrs gSa rFkk ,d lqUnj fidfud LFky Hkh gS tgka cSBus dh lqfo/kk ds vykok dbZ lqUnj dyk d`fr;ka Hkh cuh gqbZ gSa] ftUgsa f'keyk vkVZ dkyst ds ewfrZdkj lUur dqekj us cuk;k gS A blh ifjØek ds nkSjku vkxs pydj ,d fo'kky ihiy dk o`{k vkrk gS ftlds rus ij yksx viuk uke xksn dj fy[k nsrs gSa tks ukeksa ls vVk iM+k gqvk gS A ukSdk ls lSj djus okys ;gka ls okil eqM+ tkrs gSa d;ksafd vkxs dk jkLrk nyny ,oa ?kkl ls Hkjk gS] ysfdu ;gka ds taxy ds [kV~Vs uhcw dks p[kus ls ugh pwdrs ftldk Lokn pViVk gksrk gS A vkxs pyus ij ekrk dk flj LFky vkrk gS tgka ij ujly dh ?kkl vf/kd ek=kk esa ikbZ tkrh gS ftlesa HkDr ijkans cka/krs gSa ekuksa fd og ekrk dh pksVh dks laokj jgs gksa A Åij tEcw ds Vhys ls uhps >hy dh vksj ns[kus ls >hy dk vkdkj Li"V L=kh ds vkdkj dh Hkkafr utj vkrh gS A ifjØek ds nkSjku nwljh vksj ls ifjØek izkjEHk djus ij if{k;ksaa dk xqtau e/kqj laxhr dk vkHkkl Hkh djkrk gS ,oa jkf=k ds nkSjku taxyh tkuoj izk;% utj vkrs gSa dbZ ckj rks e`xksa dks vius >q.M+ ds lkFk >hy ds vkiikl fopj.k djrs ,oa >hy dks ikj djrs Hkh ns[kk tk ldrk gS A >hy dh lqUnjrk] 'kkUr LoPN okrkj.k] i'kq i{kh ds lqUnj xqtau] dqpkysa Hkjrs tho] lkjl] ou eqxsZ vkfn thou dks ,d vuks[kk lans'k nsrs gq, vkuUn iznku djrs gSa ;gka vxj vki cSB x;s rks tukc mBus dk eu ugh djrk A ;g >hy yxHkx 20 gsDVsvj esa QSyh gS ftlesa ls 5 gsDVsvj dk {ks=k lw[k x;k gS A blds vykok bl >hy dh xbjkbZ 5 ls ysdj 13 ehVj ds yxHkx gS A
       >hy ds nksuksa vksj ds fof'k"B ioZr gaS nnkgw dh vksj ls nkbZ vksj ds ioZr dk uke /kkj Vkju gS A nwljh vksj dk ioZr egsUæ ioZr ds uke ls izfl) gS Ajs.kqdk ls tEeq xkao tkrs le; ,d Vhyk feyrk gs ftls ris dk Vhyk cksyrs gSa A yksxksa ds vuqlkj bls ris dk Vhyk blfy, dgk tkrk gS D;ksafd bl Vhys ij Hk`xq dk vkJe Fkk A bl ij tenfXu rfkk js.kqdk us riL;k dh Fkh A ekrk ds iSjksa ds ikl vkdj ifjØek iwjh gks tkrh gS A bl LFkku dks ^^'kkyhiky** dgrs gSa A
       ;gka ij ^pwM f'k[kj* fljekSj dh lcls Åaph pksVh gS tgka ls f'keyk vkfn dks lkeus ls ns[kk tk ldrk gS A bldh ÅapkbZ leqæry ls 2553 ehVj gS A ;gka izR;sd ioZr ds Åaps f'k[kj ij fdlh uk fdlh nsoh nsorkvksa dk fuokl LFkku gS A ;gka ds iqjkus yksxksa dh ;g lksap Fkh fd vxj Åaps f'k[kj ij nsoh nsorkvksa dk okl j[kk tk; rks blls nsork dh utj iwjs xkao ij jgrh gS vkSj gj vkQr foifÙk ls iwjk xkao cpk jgrk gS A xzke tEeq tks js.kqdk dh izR;sd ?kVuk ls tqM+k gS ,d egRoiw.kZ iM+ko gS A blds fdyksehVj nwjh ij ,d rkykc gS ftls ^d.kZ* ;k ^djuk* dk tksgM+ dgk tkrk gS A ris ds Vhys ds e/; esa ounsoh dh xqQk gS ftlls ckjg eghus ,d NksVh /kkjk cgrh jgrh gS A ;gka ls js.kqdk rFkk tEeq dk Vhyk fn[kkbZ nsrk gS A
        ftyk fljekSj ds js.kqdk esys dh ijEijk lfn;ksa iqjkuh gS A ;gka dk izkd`frd lkSUn;Z] 'kkUr oknh dsoy js.kqdkoklh] fljekSfj;ksa] fgekpfy;ksa dh gh ugh vfirq leLr vk;Ztkfr dh ifo=k   /kjksgj gS A ;gka ds esys dks ekuus vkSj blesa 'kkfey gksus ds fy, yksxksa esa vlhe ykylk jgrh gS vkSj ;gh dkj.k gS fdesys ds vkus ls iwoZ yksx viuh iwoZ rS;kfj;ka vkjEHk dj nsrs gSa A esys ds ihNs izR;sd ekrk dks vius iq=k ds feyus dh pkg] yM+fd;ksa dks nsoBu R;ksgkj eukus] O;kikfj;ksa dks leku cspus rFkk [kjhnus] ;qod ;qofr;ksa dks esys esa feyus ds volj] cPpkssa dks feBkb;ka f[kykSuks dk 'kkSd] HkDrksa dh js.kqdk ;k=kk rFkk Luku] rFkk d`"kdksa dks viuh iSnkokj cspus ds ckn vius fy, vko';d oLrq [kjhnus dk ;g js.kqdk esyk vkd"kZd dsUæ gS A
       js.kqdk esys  esa n'keh ds fnu xzke tEeq tgka ij'kqjke dk izkphu efUnj gS] ;gka ij Hkxoku ij'kq       jke dh lokjh cM+h /kwe&/kke ls [kwc ltk&/ktk ds fudkyh tkrh gS A bl lokjh esa iqtkjh ds lkFk ok| ;U=k gksrs gS ,oa pkanh dh ikydh esa Hkxoku dh ewfrZ gksrh gS ftls fxjh unh ys tk;k tkrk gS A bl 'kksHkk;k=kk esa <ksy] uxkM+s] djuky] j.kflaxk] nqekuq vkfn ckts ctkrs gSa ,oa mlds ihNs yksdfiz; rhjdekuksa dk [ksy ^^BksMk**] u`R; ny] LFkkuh; u`R; izn'kZu o vU; lkaLd`fr >yfd;ka fn[kkbZ nsrh gSa A bl 'kksHkk ;k=kk ds nkSjku ekxZ esa p<+kok p<+kus okyksa dh bruh HkhM+ gksrh gS fd yksx nsork dks HksV gsrq nwj ls gh iSlksa vkSj diM+ksa dk pM+kok p<+krs gSa A bl fnu >hy esa uko pykus  dh vuqefr ugh gS blfy, ukSdk fogkj izseh >hy dh vksj gljr Hkjh fuxkg Mkyrs gq, nwljs fnu dk bUrtkj djrs gSa A yksx efUnjksa esa tkdj ekrk js.kqdk o Hkxoku ij'kqjke dks ekFkk Vsdrs gSa A ;g esyk iw.kZeklh rd pyrk jgrk gS A iw.kZeklh ds Luku ds cgqr egRo fn;k tkrk gS ftl dkj.k yksx blh fnu ds Luku ds fy, meM+ iMrs gSa A blds vykok esys esa igyokuksa dh dqf'r;ka] ljdl] >wys] tknw?kj] iznZf'kuh] flusek dk Hkh cksyckyk jgrk gS A 'kke ds le; vkfrckth NwVrh gS ,oa jkf=k ds le; yksd lEidZ foHkkx rFkk vU; laLFkkvksa] vk;kstdksa ds iz;kl ls fofHkUu izdkj ds lkaLd`frd dk;ZØeksa dk Hkh vk;kstu gksrk gS A rjg rjg dh ifj/kkuksa ls lqlfTtr yksxksa dh HkhM+ ls cktkj dk vkSj nqdkuksa esa yEch HkhM+ ,df=kr jgrh gS A tgka ij yksx rjg&rjg oLrq;sa [kjhnrs [kkrs vkSj vkuUn ysrs utj vkrs gSa A
       ;gka ds fy, ikaoVk lkfgc] fnYyh] p.Mhx<+] f'keyk] vEckyk] ;equkuxj] vkfn ls lh/kh clsa esys ij vkrh gSa A ;kf=k;ksa ds Bgjus ds  fdlku Hkou] ou foHkkx ,oa lkoZtfud foHkkx ds foJke x`g gSa A blds vykok vyx ls vkJe vkSj foJke x`g lk/kq lUrksa ds fy, Hkh gSA  bl rhFkZ dh izkd`frd lkSUn;rk] LoPN i;ZVd LFky] /kkfeZd egRo] 'kkUr vkSj fu"Ny okrkrkoj.k cjcl gh gj o"kZ fo}kuksa] HkDrksa] izd`fr izseh] ;qod&;qofr;ksa] cPpksa&cwM+ksa dks vius vki gh viuh vksj ,d 'kfDr'kkyh pqEcd dh Hkkafr [khap ysrk gS A tks fd  /khjs&/khjs js.kqdk esys ds :i esa cny tkrk gS A
       

शिलाई 




सिख संग्रहालय 



मां भंगायनी देवी मंदिर ( हरिपुर धार)

शिरगुल महादेव राजा गोगापीर ने माता भंगयाणी को अपनी धर्म बहन बनाकर शिरगुल महादेव अपने साथ ले आए तथा हरिपुरधार में एक टीले पद उन्हें स्थान देकर सर्वशक्तिमान होने का वरदान दिया। तभी से यह मंदिर उतरी भारत में  सिद्ध पीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ
हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं की शिवालिक पहाडि़यों में समुद्रतल से लगभग 8000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। उत्तरी भारत का सुप्रसिद्ध सिद्धपीठ मां भंगायनी देवी का मंदिर। यह प्राचीन मंदिर  सिरमौर जिला के हरिपुधार में शिमला की सीमा पर अवस्थित है। सिरमौर की देवी के नाम से विख्यात यह मंदिर विगत कई दशकों से लाखों श्रद्धालुओं की असीम आस्था व श्रद्धा का केंद्र बिंदु बना हुआ है। यहां पूरा वर्ष भर भक्तों का तांता लगा रहता है, वहीं विशेषकर नवरात्रों के पावन पर्व, संक्रांति, अमावस्या, पूर्णमासी के अतिरिक्त मास के ज्येष्ठ मंगलवार, शनिवार और रविवार को असंख्य लोग अपनी मनौती पूर्ण होने पर मां के दरबार में पहुंचते है।  इस दिव्य शक्ति मां भंगायणी को इन्साफ  की देवी भी माना जाता है।  कोर्ट कचहरी में न्याय न मिलने पर पीडि़त व्यक्ति इस माता के मंदिर में आकर इन्साफ  की गुहार करते है और लोगों का विश्वास है कि मंदिर में उन्हें निश्चित रूप से न्याय मिल जाएगा। जनश्रुति के अनुसार इस सुप्रसिद्ध मंदिर का पौराणिक इतिहास इस क्षेत्र के आराध्य देव शिरगुल महाराज से जुड़ा हुआ है। शिरगुल देव की वीरगाथा के अनुसार जब वह कालांतर में सैंकड़ों हाटियों के दल के साथ दिल्ली शहर गए थे तो उनकी दिव्यशक्ति की लीला के प्रदर्शन से दिल्लीवासी स्तब्ध रह गए थे।  जब तत्कालीन तुर्की शासक को शिरगुल महादेव की आलौकिक शक्ति का पता चला तो उन्होंने शिरगुल महादेव को गाय के कच्चे चमड़े की बेडि़यों में बांधकर कारावास में डाल दिया था। चमड़े के स्पर्श से शिरगुल देव की शक्ति क्षीण हो गई थी। ऐसे में कारावास से मुक्ति दिलाने हेतु सहायतार्थ आए बागड़ देश के राजा गोगापीर ने तुर्की शासक के कारावास में सफाई का कार्य करने वाली माता भंगायणी की मदद से  शिरगुल महादेव को कारावास से मुक्त करवाया गया था। तब शिरगुल महादेव व राजा गोगापीर ने माता भंगयाणी को अपनी धर्म बहन बनाकर शिरगुल महादेव अपने साथ ले आए तथा हरिपुरधार में एक टीले पद उन्हे स्थान देकर सर्वशक्तिमान होने का वरदान दिया।  तभी से यह मंदिर उतरी भारत में सिद्ध पीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल पर पहुंचकर श्रद्धालुगण जहां एक और मां भंगयाणी की असीम कृपा दृष्टि व अ  ार्शीवाद प्राप्त करते है तो वहीं यहां के प्राकृतिक सौंदर्य  एवं चूड़धार की हिमाच्छादित चोटियों को निहारने का सुअवसर भी प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त मंदिर के उत्तर व पूर्व दिशा की और हिमालय पर्वत की बर्फ  की सफेद चादर ओढ़े उंची चोटियां मन को ठंडक का एहसास दिलाती है जिससे लगता है कि प्रकृति ने इस स्थल पर सौंदर्य का अनमोल खजाना बिखेर कर स्वर्ग बनाया है। मंदिर के आसपास देवदार, कायल, रई, खरशु, बान इत्यादि वृक्षों के घने जंगल प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नजारा प्रस्तुत करते है। इतना ही नहीं जहां इस क्षेत्र के घने जंगलों में दुर्लभ किस्म के वन्य प्राणी है तो वहीं दुर्लभ किस्म की असंख्य जड़ी बुटियों का पर्याप्त भण्डार भी है। पर्यटन की दृष्टि से आने वाले पर्यटकों के लिए यहां मंदिर के अतिरिक्त कुछ ही दूरी पर तत्कालीन सिरमौर रियासत के राजा हरि प्रकाश 1694-1703 ई. द्वारा सीमा निगरानी हेतु बनाया गया हरिपुर किला, लुठकड़ी का किला, तत्कालीन जुब्बल रियासत की सीमा पर बना किला इत्यादि भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।  दूर-दूर से मां के दर्शनार्थ आने वाले श्रद्धालुओं के लिए मंदिर समिति द्वारा उचित प्रबंध किए गए है जिसमें 60 कमरों वाला यात्री निवास, एक बडा हॉल, पुस्तकालय, यात्री कक्ष, शौचालय इत्यादि शामिल है। यह स्थान वर्ष भर सड़क मार्ग से जुडा हुआ है। यहां से पांवटा साहिब वाया शिलाई  लगभग 125 कि.मी जिला मुख्यालय नाहन 88 कि.मी श्री रेणुकाजी 52 कि.मी देहरादून 165 कि.मी चंडीगढ़ 175 कि.मी तथा राजधानी शिमला 150 कि.मी दूर है। यहां से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सोलन देहरादून व चंडीगढ़ है तथा नजदीकी हवाई अडडे देहरादून व  चंडीगढ़ है।
बाबू राम चैहान, सिरमौर

गोगा पीर / गुग्गा पीर/ जाहरवीर
गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जहरवीर गोगा जी के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है|

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथ के परमशिस्य थे। [चौहान गुर्जर] वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है। मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के गुर्जर शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।
लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान गुर्जर, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।
जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं। आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है। गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है। लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है। भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है। उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं
हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर  जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।
प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी (सोमवार) को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।
जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है। गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडीके टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा|
 गुगा मंदिर शिलाई गाँव में महाराज का पाईता जागरण मनाया जाता है. जिसको देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ती है. 1
नाहन : प्रत्येक वर्ष नाहन शहर का ऐतिहासिक छड़ी मेला लगता है.। शहर के पक्का टैंक से गुग्गा पीर की माड़ी तक आयोजित होने वाले इस मेले में हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं के भाग लेते है। जिला मुख्यालय के अलावा जिले के विभिन्न हिस्सों से लोग इस छड़ी मेले में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। गौर हो कि छड़ी मेले से पूर्व श्रावण व भाद्र पद माह के दौरान गुग्गा पीर की छड़ी शहर के ऐतिहासिक काली स्थान मंदिर से निकलती है। जानकारी के मुताबिक रक्षाबंधन के पर्व पर गुग्गा पीर की छड़ी शहर के बड़ा चौक स्थित खेड़ा महाराज मंदिर के समक्ष एक रात की चौकी लगाती है तत्पश्चात 25 अगस्त से दो सितंबर तक शहर के छोटा चौक में शहरवासियों के कष्ट हरने व गुग्गा के दर्शनों के लिए स्थापित की जाती है। गौर हो कि किवंदती के मुताबिक गौरखनाथ के शिष्य गुग्गा को अपने जीवनकाल में अनेक कष्टों व संकटों का सामना करना पड़ा था, जिसका बाद का जीवन काल तपस्या व संघर्ष के बीच गुजरा।

यहां गुग्गा जाहरवीर ने किया ऐसा चमत्कार कि डरकर भागे राक्षस


पहाड़ के बीचोंबीच बसे शिलाई गांव और बाजार पर एक राक्षस की बुरी नजर थी। इसी कारण यहां अक्सर किसी व्यक्ति या सफेद रंग के पशु की मौत हो जाती थी। ये कोई कहानी नहीं है। गांव के लोग आज भी इस बात पर यकीन करते हैं।
बरसात के दौरान जहरीले जीवों, सांप व बिच्छु आदि का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में गुग्गा महाराज सर्वधर्म के अनुयायी लोगों की इन जहरीले जीवों से रक्षा करते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जन्माष्टमी पर सभी देवी-देवता जाग जाते हैं, तो गुग्गा महाराज अपने स्थान पर आकर निंद्रा में लीन हो जाते हैं। जन्माष्टमी से अगले दिन जिला मुख्यालय में गुग्गा की छड़ी को गुग्गा माड़ी में वापस स्थापित किया जाता है। इस अवसर पर शहर में मेले का आयोजन  किया जाता है।2
2 स्थानीय जानकारी के अनुसार 
************************************************************   

जैतक फोर्टनाहन



जैतक फोर्ट हिमाचल प्रदेश के जैतक हिल्स के शीर्ष पर स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। आगंतुक इस किले तक आसानी से पहुँच सकते हैं क्योंकि यह नाहन से केवल 25 किमी दूर है।

ऐतिहासिक तौर पर, यह नाहन के सबसे पुराने किलों में से एक है, जो 1810 में बनवाया गया था। गोरखा नेता रनजौर सिंह थापा और उनके अनुयायियों ने नाहन किले पर हमला किया और नाहन किले के खंडहर से जैतक हिल्स के शीर्ष पर इस किले का निर्माण किया।
इस किले का सुंदर स्थान जैतक हिल्स के ऊपर से आसपास के क्षोत्र का आकर्षक दृश्य देता है।
************************************************ 

रानी ताल

जिला सिरमौर मुख्यालय स्थित नाहन शहर के बीचोबीच स्थित रानीताल गार्डन शहर की सुंदरता को चार चाद लगाता है। रानीताल गार्डन का निर्माण 1889 में हुआ था। ऐसे में इसका ऐतिहासिक महत्व भी कम नहीं आंका जा सकता। 393 साल पुराने नाहन शहर में हैरीटेज के लिहाज से अब भी कई इमारतें मौजूद हैं, लेकिन गार्डन की अपनी ही एक गरिमा रही है।
जानकारों का मानना है कि यह प्रदेश का सबसे पुराना व ऐतिहासिक गार्डन हो सकता है। करीब 25 से 30 बीघा क्षेत्रफल में फैला यह बाग प्राकृतिक छटा से सराबोर है। गार्डन के भीतर लगे सैकड़ों आम व लीची के पेड़ पर लगे फल अपनी ओर आकर्षित करते हैं। नाहन शहर का डिजाइन इटली के इंजीनियर ने बनाया था। इसके बाद गार्डन के कुछ हिस्सों को भी इटली की शैली में तैयार किया गया है। गार्डन में भगवान शिव का प्राचीन मंदिर मौजूद है। मंदिर में अदभुत 12 ज्योतिलिंग प्रतिष्ठापित किए गए हैं। तालाब की खूबसूरती आगतुकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। गार्डन में दशकों पुराना फव्वारा जीर्णक्षीण अवस्था में है। ऐसा भी माना जाता है कि रियासत के दौरान शाही महल से रानी इसी फव्वारे में नहाने के लिए भूमिगत गुफा से पहुंचती थी। गुफा में रानी की निजिता बरती जाती थी। दशकों से यह गुफा बंद पड़ी है। एक कुंए के अलावा बारादरी का भवन भी ऐतिहासिक है।
गार्डन का स्वामित्व नगर परिषद के हाथों में है। यहा लीची व आम के बगीचों से नगर परिषद को हजारों की आमदनी होती है। सुबह-शाम तालाब के राउंड का इस्तेमाल सैरगाह के तौर पर होता है। 60 के दशक में बालीवुड की सुपरहिट फिल्म गुनाहों का देवता के दृश्य इसी गार्डन में फिल्माए गए थे। फिल्म में जीतेंद्र ने अभिनेता व राजश्री ने अभिनेत्री का किरदार निभाया था। गार्डन के भीतर बच्चों के खेलने के लिए झूलों के साथ पार्क की भी व्यवस्था है। गार्डन को खूबसूरत बनाने में कोई कसर न रहे, इसके लिए खास तौर पर इंगलेंड से मंगवाई गई कास्ट आयरन से निर्मित कई मूर्तिया पार्क वाली तरफ लगाई गई थी। इसमें से वर्तमान में शायद ही कोई बची हो। इसे जिला सिरमौर का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इस गार्डन को आज तक हिमाचल प्रदेश पर्यटन विभाग की विवरणिका में अब तक भी जगह नहीं मिल पाई है।
**************************************************

सुकेती जीवाश्म पार्क, नाहन

सुकेती जीवाश्म पार्क, जो हिमाचल प्रदेश राज्य के नाहन में स्थित है, पर्यटकों के लिए एक प्रसिद्ध गंतव्य है। यात्री आसानी से इस पार्क तक पहुँच सकते हैं क्य़ोंकि यह नाहन से 25 किमी दूर है।
पार्क भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और हिमाचल प्रदेश सरकार के द्वारा बनाया गया था। इसका सावधानीपूर्वक ध्यान रखा गया है और देखभाल की गई है। यह एशिया का पहला पार्क है जहां जीवाश्मों की खोज की गई। बहुत से छात्रों और विद्वानों के द्वारा कुछ शोध कार्य के लिए पार्क की यात्रा की जाती है।
फाइबर प्रबलित प्लास्टिक (एफआरपी) से बने पूर्व ऐतिहासिक पशुओं के जीवन आकार के मॉडल पार्क में प्रदर्शित हैं।मरकंडा नदी के शांत तट पर स्थित, वर्तमान में पार्क में  स्टेगोडाँग्नेसा (विलुप्त भव्य हाथी), सिवाथेरियम, कोलॉसकेलिस एटलस (विशाल भूमि कछुआ और चेलॉनिया के), पैरामैकेरडस (सब्रे दांतेदार बाघ), हेक्साप्रोटोडॉन-सिवालेंसिस (छह कृंतक के साथ दरियाई घोड़ा) और क्रोकोडीलिया के जीवन आकार के मॉडल के छह सेट हैं।
ये सभी जीवाश्म और कंकाल पुरातत्वविदों द्वारा खोजे गये हैं, और पूर्व ऐतिहासिक युग की जैव विविधता के अध्ययन के लिये बहुत ध्यान से संरक्षित हैं। पार्क शिवालिक के मध्य और उच्च स्तर पर स्थित, हिमालय की एक पर्वत श्रृंखला, जो नरम बलुआ पत्थर और मिट्टी के चट्टानों से मिलकर बनी है।

***********************************************************
 

माता बाला सुंदरी

-अनन्त आलोक


देवभूमि हिमाचल का शायद ही कोई ऐसा ग्राम या कस्बा हो जहाँ कोई न कोई धार्मिक स्थल यहाँ के लोगों की आस्था और विश्वास को पुष्ट न करता हो। यही कारण है कि इसे देवभूमि कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर के मुख्यालय नाहन से लगभग १६ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम में मध्यम ऊँचाई की पर्वत शृंखला की तलहटी में घने वन के आँचल में एक रमणीक एवं पावन स्थल है, जिसे पिहोवा या त्रिलोकपुर के नाम से न केवल हिमाचल अपितु समस्त उत्तर भारत में जाना जाता है। त्रिलोकपुर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है। यह तीन शक्तियों का संगम है। जो माँ दुर्गा के तीन स्वरूपों को दर्शाता है।
मुख्य मन्दिर जो त्रिलोकपुर में स्थित है माता बालासुन्दरी का है। यह माता दुर्गा के बाल रूप का साक्षात दर्शन है। जिन्हें आदिशक्ति के रूप में पूजा जाता है। दूसरा मन्दिर भगवती ललिता देवी का है जो माता बालासुन्दरी के मुख्य द्वार के सामने तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। त्रितीय त्रिपुर भैरवी का मन्दिर माता बाला सुन्दरी मन्दिर के उत्तर पश्चिम में लगभग १३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
माता भगवती बालासुंदरी की पिण्डी के ऊपर पंचदर्शी यंत्र स्थापित है। सरस्वती तट पर होने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। वामन पुराण के अनुसार वाराणसी से भगवान शंकर के साथ ही माता बाला सुन्दरी पिहोवा में आई और यहीं पर निवास करने लगी। शास्त्रों के अनुसार सतयुग में पृथूदक पिहोवा की स्थापना के समय श्री पृथ्वेश्वर महादेव और माता बाला सुन्दरी की स्थापना व पूजा राजा वेन के पुत्र राजा पृथू द्वारा की गई। मंदिर में माता बाला सुन्दरी एक पिण्डी के रूप में स्थापित है। जिसपर एक विशेष यंत्र बना हुआ है। विद्वान ज्योतिषियो के अनुसार यह पंचदर्शी यंत्र है जिसकी सच्चे मन से अराधना करने से सृष्टि के हर प्रकार का सुख व वैभव प्राप्त होता है। जोकि बहुत दुर्लभ है कहा जाता है कि आज से लगभग ८०० वर्ष पूर्व मुगल शासको ने इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया और तभी माता का पिण्डी स्वरूप लुप्त हो गया। बाद में माता बाला सुन्दरी मन्दिर का निर्माण १५७३ में सिरमौर रियासत के तत्कालीन शासक राजा दीप प्रकाश द्वारा करवाया गया था।
एक दंतकथा के अनुसार लगभग साढ़े ३५० वर्ष पूर्व माता पिंडी रूप में यहाँ पर पहुँची थीं। उस समय इस स्थान पर एक व्यवसायी लाला राम दास व्यापार किया करता था जो उत्तर प्रदेश के देव वन नामक स्थान से नमक लेकर आता था। एक बार जब वह नमक लेकर आया तो एक चमत्कार हुआ। लाला नमक बेचता रहा लेकिन हैरानी कि नमक समाप्त ही न हुआ। जितना नमक वह बेचता पात्र में उतना ही नमक वापस भर जाता। यूँ प्रतीत होता मानो पात्र से नमक निकाला ही न गया हो। वसायी को ज्यों ही इस चमत्कार का आभास हुआ उसे खुशी तो हुई ही साथ ही जिज्ञासा का होना भी स्वभाविक था। उसकी रातों की नींद गायब हो गई।
ज्यों ही उसकी आँख लगी माता ने सपने में आकर दर्शन दिए और बताया कि देवी माता ने भूमि के स्वामी को स्वपन में दर्शन दिए और आदेश दिया की मैं इस भूमि में स्थित कुंए के अन्दर पिण्डी रूप में विराजमान हुँ। आज भी वह कुआँ मंदिर के प्रांगण में विद्यमान है। अगले दिन सुबह ही उस जिज्ञासु और श्रद्धावान परिवार ने जैसे ही खुदाई शुरू की तो वहाँ से एक क्षीण अवस्था में भवन के अवशेष दिखाई दिए। उस ब्रहाम्ण ने उसका जिर्णोद्धार कर पिण्डी को मंदिर में स्थापित किया। चूँकि व्यवसायी अभी इस देव कारज के निमित्त कुछ करने में असमर्थ था। अतः व्यसायी ने अपने साथ हुये चमत्कार और स्वप्न में माता का दर्शन एवं उनकी आज्ञा राजा के समुख जा सुनाई। राजा ने जब स्वयं आकर देखा कि जिस स्थान पर माता पिंडी रूप में विराजमान थी वहाँ पर एक दिव्य आलोक प्रर्दर्शित हो रहा था। राजा ने शक्ति को प्रणाम किया और उसे अपनी कुल देवी स्वीकार करते हुए जयपुर से कारीगरों को बुलाया तथा इस स्थान पर एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण करवा गया। उसमें माता को विधिवत प्रतिष्ठित करवाया गया। तभी से माता बाला सुन्दरी राजपरिवार की कुल देवी एवं व्यवसायी रामदास के वंशज माता के पुजारी हुए। मन्दिर के निमार्ण के पूर्ण होने पर जो अनुष्ठान हुआ वह यहाँ की परंपरा बन गई।
बाद में सन् १८२३ में राजा फतेह प्रकाश ने मन्दिर का जीर्णेद्वार करवाया तथा १८५१ में फिर महाराजा रघुबीर प्रकाश ने पुनः मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया। इस समय यहाँ पर माता बाला सुन्दरी मन्दिर न्यास का गठन जिला प्रशासन की देखरेख में किया गया है। जो यहाँ की व्यवस्था को देखता है। माता बाला सुन्दरी के दर्शनार्थ हिमाचल के अलावा समस्त उत्तर भारत से भक्तजन आते हैं और मनवांच्छित फल प्राप्त करते हैं।
वर्तमान में पिछले १४ वर्षो से नगरवासियों के सहयोग से माता बाला सुन्दरी कार्यकारिणी कमेटी पिहोवा का गठन किया गया। जिसके सभी सदस्य महामाई की असीम कृपा और नगर वासियों के सहयोग से मंदिर का निर्माण कार्य निरंतर जारी रखे हुए है। मंदिर प्रांगण में यात्री निवास भी स्थापित है। जिसमें निशुल्क व्यवस्था है और मंदिर कमेटी की ओर से २४ घंटें की ऐम्बुलैंस सुविधा भी उपलब्ध है।
यहाँ आने वाले भक्तों में मान्यता है कि माता के दर्शन का फल तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक यहाँ स्थित ध्यानु भक्त के दर्शन न कर लिए जाएँ। मन्दिर के मुख्य द्वार से पहले भगवान भोले नाथ का अद्वितीय मन्दिर एक जलाशय के बीचोंबीच स्थित है। जिसके दर्शन एवं पूजा अर्चना कर श्रद्धालु अपने आप को धन्य करते हैं। माता के मन्दिर तक पहुँचने के लिए जिला सिरमौर के मुख्यालय नाहन से काला आम्ब होते हुए एवं प्रदेश के बाहर से आने वाले श्रद्वालु काला आम्ब पहुँच कर त्रिलोकपुर के लिए बस द्वारा या निजी वाहन से पहुँच सकते हैं। काला आम्ब से इस स्थान तक मात्र छह किलोमीटर की दूरी तय कर पहुँचा जा सकता है। माता बाला सुन्दरी भक्तों की मुरादें पूरी करे।
शास्त्रों के अनुसार नवरात्रों में देवी की उपासना का विशेष महत्व है। प्रत्येक वर्ष चैत्र मास में अश्विन मास व माता के नवरात्रें मंदिर प्रांगण में बडे धूम-धाम से मनाए जाते है और नवरात्रे की सप्तमी वाली रात्री को मंदिर कमेटी की और से प्रांगण में विशाल भगवती जागरण करवाया जाता है।

३० सितंबर २०१३

***************************************** 





No comments:

Post a Comment