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आल्हा का शेर-मोर की नगरी सिरमौर से था गहरा लगाव
आल्हा घाट के सुरंग मे दफन कई राज
चन्द्रिका प्रसाद तिवारी
सिरमौर
315 मेगा
वॅाट जल विद्युत परियोजना के साथ साथ मनोहारी श्रृंखला वद्व जल प्रपातो के चारो
तरफ से विहंगम प्राकृतिक घटाओ से आच्छादित आल्हा घाट मे प्राकृतिक विशालकाय सुरंग
का इस्तेमाल जग प्रसिद्व मॉ शारदा के सबसे अनन्य भक्त महाराज आल्हा किया करते थे।
फिलहाल इस सुरंग और यहॉ मौजूद शिलालेखो व किवदंतियो की माने तो इस ऐतिहासिक स्मारक
स्थल को संरक्षित किया जाना बेहद जरूरी है। अन्यथा इस सुरंग के अन्दर व साथ मे
जुडी हुई कई रहस्यमय राज राज बन कर ही रह जायेगे। विंहगम आश्चर्य जनक स्थल व धनधोर
प्रकृति से स्व निर्मित वातावरण तथा राजाओ महाराजाओ के इतिहास की कई विरासत को
सजोये मशहूर सिरमौर तहसील मुख्यालय मे एक एैसी विशाल सुरंग है जिसमे से दो से तीन
घण्टे मे पैदल मैहर मॉ शारदा के दरबार (सतना) मे भक्त दर्शन के लिये जाया करते थे
।लेकिन पुरातत्व विभाग के उपेक्षा के कारण आज तक इस ऐतिहासिक स्थल को पर्यटन स्थल
के रूप मे विकसित नही किया जा सका ।
कहा बनी है सुरंग
रीवा जिले के तहसील मुख्यालय सिरमौर से लगभग 10 कि.मी. उत्तर पश्चिम की ओर विशाल घनघोर जंगलो के मध्य आल्हा घाट के नाम से ख्याति प्राप्त है। क्षेत्र के जानकार मध्य प्रदेश जनअभियान परिषद नगर विकास सिरमौर के अध्यक्ष एंव समाज सेवी चन्द्रिका प्रसाद तिवारी सहित कई अन्य इतिहासकारो की माने तो जिसने भी इसे जाना अल्हा घाट के नाम से ही जाना है। टी.एच.पी. (टोन्स हायडल प्रोजेेक्ट सिरमौर) के परिसर से कुछ किलोमीटर आगे पैंदल चलने के साथ ही आल्हा क्षेत्र नजर आने लगता है। आल्हा घाट के बगल मे भेडी घाट कैमहा नाला, वलगभग 20 एकड क्षेत्रफल मे फैला विशालकाय मोरचा मैदान वहा के इतिहास को बता रहा है। सैकडो साल का पुराना इतिहास व आल्हा से जुडी किवदंतियो का असली सच ।
500 फिट नीचे है सुरंग
ऐतिहासिक व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सरक्षण के बाद भी उपेक्षाओ का शिकार दुर्गम रूप से बसी इस पहाडी पर पहुचने के बाद ऊची नीची पहाडियो का एक किलोमीटर का सफर तय करने के बाद जैसे ही सिरमौर तल से लगभग 500 फिट नीचे व तराई अॅचल से लगभग 1000 फिट उचाई पर पहुचते है तो एक ऐसा कमरा नजर आता है जिसमे कारीगरो की करीगरी नजर आये बिना बहुत कुछ इतिहास स्वयं बया कर देती है।इस कमरे का निर्माण समझा जाता है कि उन दिनो गुड मेथी सहित गोद व चूना चूर्ण सहित मसाले से मिलाकर किया गया होगा। जो आज भी अपनी मजबूती के साथ उस इतिहास को बया कर रहा है।
मौजूद है शिलालेख
भारतीय पुरातत्व संर्वेक्षण विभाग व मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के अधिकारी नजर दौडाये तो सिरमौर के ऐतिहासिक आल्हा स्थल मे हाल नुमा बने कमरे के भीतर शिलालेख सहित कई ऐसी रहस्यमय गूढ भाषा मे लेख है जिन्हे पढना हर किसी के बूते की बात नही है। कमरे के अन्दर चारो तरफ छिद्र के साथ एक गुप्त दरवाजा भी मौजूद है। जो पूर्व की ओर स्थित है। जिस दरवाजे से सैकडो किलोमीटर के दृश्य को देखकर वहा के वस्तु स्थिति के अनुसार किसी भी विषम परिस्थितियो मे दुश्मनो से निपटने की विशेष व्यवस्था थी। भवन के निर्माण संरचना को देखकर सहज अदाजा लगाया जा सकताहै। यहॉ दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि धन की लालच मे आकर कई तांत्रिक व शरारती तत्वो ने इस रहस्यमयी सुरंग के आसपास कई जगहो मे खुदाई करते हुए मूल स्वरूप को छति पहुचाई है। वही जानकारी के अभाव मे शिलालेख व गूढमयी भाषा का लेख दीवालो मे अंकित है जिसे शायद यह माना जाता है कि सुरंग के अन्दर या आसपास के स्थानो मे खजाने का रहस्य व उसका मार्ग यहा लिखा गया है। जिस कारण वस उन स्थानो के शैल चित्रो के साथ छेडछाड कर उनके मूल स्वारूप को नष्ट करने का प्रयास किया गया है।
आल्हाघाट का रहस्य
आल्हाघाट की पहाडी पर पत्थर पेडो के अलावा पक्षियो नदियो के कलरव की शांती को यहा यदा-कदा ही भंग किया जाता है 500 फिट नीचे उतरने के बाद ऐतिहासिक स्थल क्षेत्र के दुर्गम पहाडी क्षेत्र मे चट्टानो व जानवरो के साथ शेर-मोर के नाम से जाने जाने वाले सिरमौर के इस आल्हाघाट मे विशालकाय बडी चट्टान के चक्कर लगाने के बाद विपरीत दिशा मे एक विशाल रहस्यमयी सुरंग का मुहाना दिखाई पडता है। कहा जाता है कि यह सुरंग यहॉ से भीतर ही भीतर माता शारदा मैहर (सतना) तक पहुच मार्ग संरंग के रूप् मे स्थित है। जिसका उपयोग 300 से 500 साल पहले आल्हा किया करते थे। आल्हा मॉ शारदा के अनन्य भक्त थे व वह सर्व प्रथम मॉ की पूजा किया करते थे। और वह माता की कृपा से आज भी अमर होकर प्रकृति मे विद्यमान है व उनकी पूजा किया करते है। इन्ही जन श्रृतियो मे कहा जाता है कि आल्हा घाट व मा शारदा माता मंदिर मैहर की बीच कुछ न कुछ विशेष जुडाव व लगाव अवश्य है। वही मॉ शारदा को प्रतिदिन अल सुबह स्नान कराने के लिए प्रथम देवी भक्त आल्हा आल्हा घाट के समीप तालाब क ेजल काउपयोग सुरंग के अन्दर ही अन्दर जाकर माता को जल चढाने के बाद उनकी पूजा अर्चना किया करते थे। संरुग के अन्दर आज भी एक कुण्ड है जहॉ 12 महीने निर्मल स्वच्छ जल भरा रहता है व सुरंग के मुहाने से कुछ दूरी पर अन्दर प्राकृतिक पानी की अविरल धाराए चलती रहती है। जिसका न तो उद्गम और न ही विलेय का पता नही है। कुछ समय पूर्व तत्कालीन सिरमौर अनुविभागीय अधिकारी पुलिस (एस.डी.ओ.पी.) अनिल मिश्रा के द्वारा जोगनहाई मंदिर मे जाकर मंदिर के सामने टाइल्स लगवाकर सुधारने के प्रयास किये गये परन्तु उनके स्थानान्तरण हो जाने के बाद स्थिति जस की तस बनी रही। बहरहाल इस सुरंग के साथ कई तिलस्मो के राजो के साथ व्यंकट भवन रीवा के बाद सिरमौर आल्हा घाट की यह दसरी विशालकाय सुरंग है जो सिरमौर से सीधे मैहर को जोडती है। पर शासन की अनदेखी के कारण इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद खतरे मे है।
मंदिर नदी व चित्रकारी भी
आल्हा घाट के आस-पास का स्थान कई इतिहास की ओर इशारा करता है। आल्हाघाट से कई फिट नीचे तालाब व हाथी के बाधने का स्थान है। जहॉ पर हाथी बॉधा जाता था उस स्थान पर आज भी घास तक पैदा नही होती। 1116 वीं शताब्दी के बीच की कई प्रतिमाए व घाट के बगल मे चट्टानो से अच्छादित जोगनहाइ माता मंदिर निर्मित है उसी के पास मुगल कालीन सैनिको उनके शस्त्रो व जंगल के राजा शेर-मोर व हाथी सहित अन्य जानवरो के चित्र अंकित है साथ ही बगल से पानी की अविरल धारा नदी के रूप मे आज भी अविरल रूप से कलरव करते वह रही है ।
कहा बनी है सुरंग
रीवा जिले के तहसील मुख्यालय सिरमौर से लगभग 10 कि.मी. उत्तर पश्चिम की ओर विशाल घनघोर जंगलो के मध्य आल्हा घाट के नाम से ख्याति प्राप्त है। क्षेत्र के जानकार मध्य प्रदेश जनअभियान परिषद नगर विकास सिरमौर के अध्यक्ष एंव समाज सेवी चन्द्रिका प्रसाद तिवारी सहित कई अन्य इतिहासकारो की माने तो जिसने भी इसे जाना अल्हा घाट के नाम से ही जाना है। टी.एच.पी. (टोन्स हायडल प्रोजेेक्ट सिरमौर) के परिसर से कुछ किलोमीटर आगे पैंदल चलने के साथ ही आल्हा क्षेत्र नजर आने लगता है। आल्हा घाट के बगल मे भेडी घाट कैमहा नाला, वलगभग 20 एकड क्षेत्रफल मे फैला विशालकाय मोरचा मैदान वहा के इतिहास को बता रहा है। सैकडो साल का पुराना इतिहास व आल्हा से जुडी किवदंतियो का असली सच ।
500 फिट नीचे है सुरंग
ऐतिहासिक व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सरक्षण के बाद भी उपेक्षाओ का शिकार दुर्गम रूप से बसी इस पहाडी पर पहुचने के बाद ऊची नीची पहाडियो का एक किलोमीटर का सफर तय करने के बाद जैसे ही सिरमौर तल से लगभग 500 फिट नीचे व तराई अॅचल से लगभग 1000 फिट उचाई पर पहुचते है तो एक ऐसा कमरा नजर आता है जिसमे कारीगरो की करीगरी नजर आये बिना बहुत कुछ इतिहास स्वयं बया कर देती है।इस कमरे का निर्माण समझा जाता है कि उन दिनो गुड मेथी सहित गोद व चूना चूर्ण सहित मसाले से मिलाकर किया गया होगा। जो आज भी अपनी मजबूती के साथ उस इतिहास को बया कर रहा है।
मौजूद है शिलालेख
भारतीय पुरातत्व संर्वेक्षण विभाग व मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के अधिकारी नजर दौडाये तो सिरमौर के ऐतिहासिक आल्हा स्थल मे हाल नुमा बने कमरे के भीतर शिलालेख सहित कई ऐसी रहस्यमय गूढ भाषा मे लेख है जिन्हे पढना हर किसी के बूते की बात नही है। कमरे के अन्दर चारो तरफ छिद्र के साथ एक गुप्त दरवाजा भी मौजूद है। जो पूर्व की ओर स्थित है। जिस दरवाजे से सैकडो किलोमीटर के दृश्य को देखकर वहा के वस्तु स्थिति के अनुसार किसी भी विषम परिस्थितियो मे दुश्मनो से निपटने की विशेष व्यवस्था थी। भवन के निर्माण संरचना को देखकर सहज अदाजा लगाया जा सकताहै। यहॉ दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि धन की लालच मे आकर कई तांत्रिक व शरारती तत्वो ने इस रहस्यमयी सुरंग के आसपास कई जगहो मे खुदाई करते हुए मूल स्वरूप को छति पहुचाई है। वही जानकारी के अभाव मे शिलालेख व गूढमयी भाषा का लेख दीवालो मे अंकित है जिसे शायद यह माना जाता है कि सुरंग के अन्दर या आसपास के स्थानो मे खजाने का रहस्य व उसका मार्ग यहा लिखा गया है। जिस कारण वस उन स्थानो के शैल चित्रो के साथ छेडछाड कर उनके मूल स्वारूप को नष्ट करने का प्रयास किया गया है।
आल्हाघाट का रहस्य
आल्हाघाट की पहाडी पर पत्थर पेडो के अलावा पक्षियो नदियो के कलरव की शांती को यहा यदा-कदा ही भंग किया जाता है 500 फिट नीचे उतरने के बाद ऐतिहासिक स्थल क्षेत्र के दुर्गम पहाडी क्षेत्र मे चट्टानो व जानवरो के साथ शेर-मोर के नाम से जाने जाने वाले सिरमौर के इस आल्हाघाट मे विशालकाय बडी चट्टान के चक्कर लगाने के बाद विपरीत दिशा मे एक विशाल रहस्यमयी सुरंग का मुहाना दिखाई पडता है। कहा जाता है कि यह सुरंग यहॉ से भीतर ही भीतर माता शारदा मैहर (सतना) तक पहुच मार्ग संरंग के रूप् मे स्थित है। जिसका उपयोग 300 से 500 साल पहले आल्हा किया करते थे। आल्हा मॉ शारदा के अनन्य भक्त थे व वह सर्व प्रथम मॉ की पूजा किया करते थे। और वह माता की कृपा से आज भी अमर होकर प्रकृति मे विद्यमान है व उनकी पूजा किया करते है। इन्ही जन श्रृतियो मे कहा जाता है कि आल्हा घाट व मा शारदा माता मंदिर मैहर की बीच कुछ न कुछ विशेष जुडाव व लगाव अवश्य है। वही मॉ शारदा को प्रतिदिन अल सुबह स्नान कराने के लिए प्रथम देवी भक्त आल्हा आल्हा घाट के समीप तालाब क ेजल काउपयोग सुरंग के अन्दर ही अन्दर जाकर माता को जल चढाने के बाद उनकी पूजा अर्चना किया करते थे। संरुग के अन्दर आज भी एक कुण्ड है जहॉ 12 महीने निर्मल स्वच्छ जल भरा रहता है व सुरंग के मुहाने से कुछ दूरी पर अन्दर प्राकृतिक पानी की अविरल धाराए चलती रहती है। जिसका न तो उद्गम और न ही विलेय का पता नही है। कुछ समय पूर्व तत्कालीन सिरमौर अनुविभागीय अधिकारी पुलिस (एस.डी.ओ.पी.) अनिल मिश्रा के द्वारा जोगनहाई मंदिर मे जाकर मंदिर के सामने टाइल्स लगवाकर सुधारने के प्रयास किये गये परन्तु उनके स्थानान्तरण हो जाने के बाद स्थिति जस की तस बनी रही। बहरहाल इस सुरंग के साथ कई तिलस्मो के राजो के साथ व्यंकट भवन रीवा के बाद सिरमौर आल्हा घाट की यह दसरी विशालकाय सुरंग है जो सिरमौर से सीधे मैहर को जोडती है। पर शासन की अनदेखी के कारण इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद खतरे मे है।
मंदिर नदी व चित्रकारी भी
आल्हा घाट के आस-पास का स्थान कई इतिहास की ओर इशारा करता है। आल्हाघाट से कई फिट नीचे तालाब व हाथी के बाधने का स्थान है। जहॉ पर हाथी बॉधा जाता था उस स्थान पर आज भी घास तक पैदा नही होती। 1116 वीं शताब्दी के बीच की कई प्रतिमाए व घाट के बगल मे चट्टानो से अच्छादित जोगनहाइ माता मंदिर निर्मित है उसी के पास मुगल कालीन सैनिको उनके शस्त्रो व जंगल के राजा शेर-मोर व हाथी सहित अन्य जानवरो के चित्र अंकित है साथ ही बगल से पानी की अविरल धारा नदी के रूप मे आज भी अविरल रूप से कलरव करते वह रही है ।
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हिमाचल के नाहन में भुला दिया गया है ऐतिहासिक 'गोरखा वार मेमोरियल'
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में नाहन
के पक्का तालाब के समीप मुख्य सड़क के पास एक ऐतिहासिक वार मेमोरियल है। शायद बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं। यह स्थल अक्सर
झाडि़यों से ढका हुआ रहता है। भारत की दुसरी सबसे पुरानी नाहन नगर परिषद ने इस
मेमोरियल की कभी साफ सफाई करने की सोची ही नहीं। सच भी है। डर भी है। कहीं नाहन
यदि अपने प्राचीन और गौरवशाली इतिहास को लापरवाही के चलते हमेशा के लिए खो ना दे ।
यह एक गोरखा वार मेमोरियल है। एंगलो गोरखा वार के दौरान गोर्खा सैनिक जैतक फोर्ट
से नाहन पर काबिज थे। कम लोग जानते हैं। कुछ समय के लिए सिरमौर का शासन गोरखा
कमांडर काजी रणजोर थापा के हाथ रहा। यदि इतिहास को खंगालें तो हमें इस बात की
जानकारी प्राप्त होगी कि एंगलो-गोरखा वार की शुरूआत और इसका अंत सिरमौर में ही हुआ
था। सिरमौर नरेश को जब सत्ता से बेदखल कर दिया तो उन्होंने गोरखों से सहायता मांगी
थी। गोरखों ने उनकी सहायता की किन्तु उन्हें गददी पर नहीं बैठा पाए। इस लिए नाहन
में कुछ समय तक गोरखा शासन कायम हुआ था। गोरखा कमांडर रणजोर सिंह थापा ने यहां पर
ब्रिटिश सेना को मात दी थी।
एंगलो गोरखा वार 26 दिसम्बर 1814 से 15 दिसम्बर 1816 तक चला। इस युद्ध में गोरखा सैनिकों ने ब्रिटिश और सिरमौर रियासत के सैनिकों की संयुक्त सेना को हराया था। इस युद्ध में करीब 600 सैनिकों के मारे जाने की सूचना है। सिरमौर नरेश कर्म प्रकाश ने देहरादून में जाकर गोरखा कमांडर काजी रणजोर थापा से भेंट कर अपने भाई रतन प्रकाश के विरूद्ध कार्रवाई के लिए कहा था। गोरखा सैनिकों ने कर्म प्रकाश के भाई पर कार्रवाही की और उसे सत्ता से बेदखल किया, किन्तु सिरमौर के वास्तविक नरेश को पुनः गददी पर नही बिठाया। इस प्रकार कर्म प्रकाश को सुबाथु में शरण लेनी पड़ी और बाद में 1826 में उनकी में मौत हो गई।
कर्म प्रकाश की पत्नी और गुलेर की रानी ने ब्रिटिश जनरल आॅक्टरलोनी से सिरमौर का राज वापिस दिलवाने की मांग की। इस अपील के बाद ब्रिटिशर ने गोरखों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर कर दी। लुधियाना से निकलकर ब्रिटिश सैनिकों ने देहरादून से गोरखा सैनिकों को खदेड़ा और उसके पश्चात वे नाहन पहुंचे और नाहन से करीब 7 किलोमीटर दूर स्थित जैतक किले में गोरखों के विरूद्ध आक्रमण कर दिया। किन्तु इस युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनके सैनिक मारे गए और जान-मान का भारी नुकसान हुआ। गोरखा सैनिकों ने जैतक के किले पर तब तक कब्जा जमाए रखा जब तक 1815 में नेपाल सरकार और ब्रिटिश इंडिया गर्वमेंट के बीच सझौता नहीं हो गया। गोरखा वार के उपरांत भी ब्रिटिश इंडिया गर्वमेंट ने सिरमौर की महारानी से किया गया अपना वायादा नहीं निभाया। ब्रिटिशर ने भी गोरखों से सिरमौर को आजाद करने के बाद भी सिरमौर नरेश कर्म प्रकाश को पुनः गददी पर नहीं बिठाया। सिरमौर नरेश की पत्नी को नाबालिग राजकुमार फतह प्रकाश का वारिश बनाया गया और उन्हें सनद आरम्भ की।
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